उपेंद्र गुप्ता
दुमका । अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर रामजन्म भूमि से 1990 में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी राम रथ यात्रा लेकर निकले थे। बिहार में प्रवेश करने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। दुमका के मसानजोर में नजरबंद किया गया था। उनके रथ में भगवान श्रीराम, सीता और हनुमान की अष्टधातु की बनी मूर्तियां लगी थी। यह आज भी दुमका के एक परिवार के पास सुरक्षित है। पिछले 18 सालों से प्रतिदिन उसकी पूजा भी होती रही है।
मंदिर में मूर्ति रखने की चाहत
विश्व हिन्दू परिषद से जुड़ा दुमका का यह परिवार चाहता है कि इस ऐतिहासिक मूर्ति को भी मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कर रखा जाये। राम मंदिर और श्री आडवाणी की रथ यात्रा दो कारणों से दुमका से खास तौर पर जुड़ी है। पहली तो आडवाणी को गिरफ्तारी के बाद मसानजोर डैम के पास पश्चिम बंगाल के आईबी में नजर बंद कर रखने और दूसरी इससे जुड़े मुकदमे के 14 साल तक चलने के कारण।
कई लोगों से जुड़े हैं संस्मरण
दुमका में कई लोग ऐसे हैं, जिनके पास राम जन्भूमि आंदोलन और उससे जुड़े संस्मरण हैं। उनमें से एक हैं अंजनी शरण। अंजनी बताते हैं कि उनके पिता विश्व हिंदू परिषद के जिला अध्यक्ष थे। इसकी वजह से गतिविधियां उनके घर से होकर गुजरती थीं। प्रतिदिन शाम में लालटेन की रोशनी में रामशिला, कारसेवा, अयोध्या और ऐसे ही संदर्भो पर देर शाम तक परिचर्चा होती थी। उन्हें पढ़ाने आने वाले शिक्षक भी लालटेन की रौशनी में उसी बैठक में सम्मिलित हो जाते थे। मिथिलेश झा और बाबूलाल मरांडी अविस्मरणीय है। पुलिसिया धड़पकड़ के दौर में उनका घर अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह माना जाता था। वह छोटा दौर किसी क्रांतिकारी गतिविधियो से अलग नहीं था। उनकी मां कितने लोगों का भोजन बनाएगी, यह उसे किसी भी दिन मालूम नहीं होता था।
नौकरी से निकालने की धमकी
श्री शरण बताते हैं कि पिता सरकारी नौकरी में थे। उनके पिता को परिषद का दायित्व उठा रहे थे। इसकी वजह से प्रसाशनिक दबिश झेलनी पड़ी थी। यहां तक कि तत्कालीन उपायुक्त ने उन्हें नौकरी से निकालने की धमकी तक दी थी। उनके पिता को नजदीक से जानने वाले लोग उनके संघर्षशील स्वभाव से परिचित हैं। वह बताते हैं कि उनकी दादी उन बैठकों में उपस्थिति, विमर्श और आतिथ्य जैसे मसलों पर दादा और पिता से ज्यादा प्रखर थी। दादी जब बोलना शुरू करती थी, तब हर पंक्ति में रामायण की चैपाई का समावेश होता था।
बिना भोग लगाये भोजन नहीं
श्री शरण बताते हैं कि श्रीराम को दामाद और सीता को पुत्री मानने वाली दादी बिना उनको भोग लगाये भोजन ग्रहण नहीं करती थी और ना ही किसी को करने देती। दुमका से लेकर अयोध्या तक वह शबरी मईया के नाम से विख्यात रही। उनकी साठ साल की उम्र थी, जब दादा और दादी रामशिला लिये कारसेवा के लिये अयोध्या गये थे। विवादित ढांचा जब गिराया गया था। अखबार में छपी तस्वीरों में वह दादा को ढूंढ रही थी।